”रात बाक़ी थी कि जब सरे-ए-बालीं आ कर
चाँद ने मुझसे कहा, जाग सहर आई है
जाग इस शब जो मय-ए-ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है"..
और फैज़ "सुरुद ए शबाना" में कहते हैं ..
" ..सो रही है घने दरख़्तों पर
चाँदनी की थकी हुई आवाज़
कहकशाँ नीम-वा निगाहों से
कह रही है हदीस-ए-शौक़-ए-नियाज़
साज़-ए-दिल के ख़मोश तारों से
छन रहा है ख़ुमार-ए-कैफ़-आगीं
आरज़ू ख़्वाब तेरा रू-ए-हसीं ".....
फैज़ के इस नज़्म में
'चाँदनी की थकी हुई आवाज़' ,
'कहकशाँ नीम-वा निगाहों' ,
और 'साज़-ए-दिल के ख़मोश तारों से
छन रहा है ख़ुमार-ए-कैफ़-आगीं ' जैसे
इस्तिआरा का इस्तिमाल बेमिसाल है,
इस नज़्म का अंतिम मिसरा brings , longing ,dream and the beautiful face of the beloved all together..जिसे सिर्फ फैज़ ही इतनी खूबसूरती से बयां कर सकते हैं
' तन्हाई ', जो फैज़ कि सबसे मुख़्तसर सी नज़्म है , मात्र 9 मिसरों की ,फैज़ कि सबसे बेहतरीन , सबसे अज़ीम तरीन तख़लीक़ है
"फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं
राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा ..
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो"..
अब यहाँ कोई नही, कोई नहीं आयेगा"