रावण के वध का दिवस
एक बात और। आम धारणा के अनुसार रावण दशहरे के दिन मारा गया या फिर किष्किंधा से राम ने वानर सेना के साथ दशहरे के दिन कूच किया और राम-सीता दिवाली के दिन अयोध्या पहुँचे। लेकिन वाल्मीकि रामायण के अनुसार ये तिथियाँ गलत हैं। इसके प्रमाण में वाल्मीकि रामायण के केवल दो श्लोक देखना पर्याप्त है। पहला श्लोक अयोध्याकांड के सर्ग 3 का चौथा श्लोक है :
चैत्र: श्रीमानयं मास: पुण्य: पुष्पितकानन:।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् ॥4॥
अर्थात यह चैत्रमास बड़ा सुंदर और पवित्र है, इसमें सारे वन-उपवन खिल उठे हैं; अत: इस समय राम का युवराज पद पर अभिषेक करने के लिए आपलोग सब सामग्री एकत्र कराइए।
दूसरा श्लोक रावण को मारने के बाद अयोध्या लौटने के क्रम में भरद्वाज के आश्रम पहुँचने के समय का है। युद्धकांड में सर्ग संख्या 124 का पहला ही श्लोक इसप्रकार है:
पूर्णे चतुर्दशे वर्षे पंचम्यां लक्ष्मणाग्रज:।
भरद्वाजाश्रमं प्राप्य ववंदे नियतो मुनिम्॥1॥
अर्थात राम ने चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर पम्चमी तिथि को भरद्वाज आश्रम में पहुँचकर मन को वश में रखते हुए मुनि को प्रणाम किया।
स्पष्ट है कि चैत मास में वन जाने के बाद चौदह वर्ष चैत ही में पूरा होगा।
तथापि, घटनाक्रम तेजी से चलता है और अगले ही दिन कैकेयी कोप भवन में चली जाती है और राम को दूसरे ही दिन वन भेज दिया जाता है।
इसको विस्तार से भी देखा जा सकता है।
अयोध्याकांड में राम के राज्याभिषेक के लिए चैत्य मास में वह दिन तय हुआ है, जिस दिन पुनर्वसु समाप्त होकर पुष्य नक्षत्र में चंद्रमा के रहेंगे (सर्ग-3)।
अरण्यकांड के सोलहवें सर्ग में लक्ष्मण हेमंत ऋतु की शोभा का वर्णन करते हुए सीता के सौंदर्य की तारीफ करते हैं। उसके अगले सर्ग में शूपर्णखा आती है और कुछ ही दिन बाद सीता का हरण हो जाता है। रावण सीता का हरण करके लंका ले जाता है और सीता को उसकी बात मानने के लिए बारह मास का समय देता है।(अरण्यकांड,सर्ग-56)। उधर सीता के विरह में रोते-गाते राम शबरी से मिलकर पंपा सरोवर के तट पर जाते हैं और वहाँ वसंत ऋतु में चैत मास के समय वन और सरोवर की शोभा का वर्णन करते हुए विरह में व्याकुल होते हैं।(किष्किंधाकांड, सर्ग-1, श्लोक 10)। यानी इस स्थान पर अयोध्या से आए हुए तेरह साल बीत गए। इसके बाद सुग्रीव के पास जाना, वाली-वध व सुग्रीव का राज्याभिषेक (श्रावण-जुलाई या अगस्त) और फिर वर्षा ऋतु आ जाने से अभियान का स्थगन, राम द्वारा शरद ऋतु का वर्णन एवं लक्ष्मण का सुग्रीव पर रोष देख सुग्रीव द्वारा वानरों को सीता की खोज में भेजना। जब हनुमान पेड़ पर छुपकर बैठे हैं तो, रावण आता है और सीता को धमकी देकर कहता है कि (अपहरण के समय) दी हुई अवधि में से मात्र दो महीने शेष रह गए हैं। (सुंदरकांड, सर्ग-22, श्लोक- 8)। अनेक विद्वानों के हवाले से एच डी संकलिया लिखते हैं कि राम वानर-सेना के साथ पौष के मध्य में लंका की ओर कूच करते हैं और रावण अमावस्या को मारा जाता है। (संकलिया, पेज- 126)। कंब के ‘इरामावतारम्’ में भी यही समय बताया गया है। इसी आधार पर चतुरसेन शास्त्री ने भी ‘वयं रक्षाम:’ में रावण के वध की तिथि चैत्र की अमावस्या रखी है। अंत में पुष्पक से राम लौटते हुए भरद्वाज आश्रम ठीक चौदह साल पूरा होने पर पंचमी के दिन पहुँचते हैं।(युद्धकांड, सर्ग 124, श्लोक 1)।
उपर्युक्त विवरण को देखते हुए दशहरा के दिन रावण के पुतले जलाए जाने का कोई आधार नहीं है।
रामायण में मृगया (आखेट) (Hunting) की भूमिका
वाल्मीकि रामायण की रचना-प्रक्रिया अपने आप में रोचक कथा है, जिससे रामकथा के प्रेमी अनभिज्ञ नहीं हैं:
एक दिन वाल्मीकि अपने शिष्य के साथ वन की शोभा देखते हुए टहल रहे थे। उनके पास ही क्रौंच पक्षियों का एक जोड़ा मधुर बोलियाँ बोलते हुए इधर-उधर विचर रहा था। उसी समय समस्त जंतुओं से ‘अकारण वैर’ और ‘पापपूर्ण विचार रखने वाले एक निषाद’ ने नर पक्षी को मुनि के देखते-देखते वाण से मार डाला। वह पक्षी खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। ‘अपने पति की हत्या हुई देख उसकी भार्या क्रौंची करुणाजनक स्वर में चीत्कार उठी’। ऋषि को बड़ी दया आई। स्वभावत: करुणा का अनुभव करने वाले ब्रह्मर्षि ने ‘यह अधर्म हुआ है’ ऐसा निश्चय करके रोती हुई क्रौंची की ओर देखते हुए निषाद से इस प्रकार कहा – ‘निषाद! तुझे नित्य-निरंतर- कभी भी शांति न मिले; क्योंकि तूने इस क्रौंच के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली’। ऐसा कहकर जब उन्होंने इस पर विचार किया तो उनके मन में चिंता हुई और वे एक निश्चय पर पहुँचकर अपने शिष्य से बोले- तात! शोक से पीड़ित हुए मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा है, यह चार चरणों में आबद्ध है। इसके प्रत्येक चरण में बराबर अक्षर हैं तथा इसे वीणा के लय पर गाया जा सकता है; अत: मेरा यह वचन श्लोकरूप में होना चाहिए, अन्यथा नहीं’। इसके बाद वे ब्रह्मा के आदेश से रामायण की रचना करने बैठे।.. उस समय भी उनके मन में शाप और शाप के अनौचित्य पर भी ध्यान आया। तब वे शोक व चिंता में डूब गए। लेकिन फिर ब्रह्मा के यह कहने पर कि वह श्लोक उन्हीं की प्रेरणा से वाल्मीकि के मुख से निकला है, उन्होंने इसकी रचना आरंभ की।”(बालकांड, सर्ग-2)।
यह विडंबना (और शायद फ्रॉयडीय सिद्धांतों के अनुरूप भी) है कि आजीवन कामरहित रहने वाले एक ऋषि कवि के लिए काममोहित पक्षी की मृत्यु रचना का विषय बन सकती है। तथापि, जिस महाकवि ने रामायण का आरंभ निषाद के वाण से मरे पक्षियों के जोड़े में से एक की हत्या से आहत होने और निषाद को शाप देने से किया हो, उसने अपनी रचना में बार-बार आखेट और उससे पैदा होने वाले विषाद का सृजन बिना कारण किया होगा, ऐसा सोचना तार्किक नहीं लगता।
विश्वामित्र आदि मुनियों के यज्ञ के विध्वंस के अपराध में ताटका और सुबाहु को मारना सकारण माना जा सकता है; किंतु दशरथ द्वारा निरपराध मुनिकुमार को मारने और उसके फलस्वरूप उसके अंधे माता-पिता की आत्महत्या से वाल्मीकि ने राम के वनवास और पुत्र-वियोग में दशरथ की मृत्यु को सीधे-सीधे क्यों और कैसे जोड़ा है, यह एक विचारणीय सवाल है। राम, लक्ष्मण और सीता के वन चले जाने के बाद दशरथ कौसल्या से इस घटना का विस्तार से वर्णन करते हैं कि कैसे उन्होंने हाथी का शिकार करने के भ्रम में मुनिकुमार पर वाण चला दिया। कुमार के मरने की सूचना मिलने के बाद उसके अंधे पिता ने दशरथ से कहा, ‘तुमने अनजाने में यह पाप किया है, इसी लिए अभी तक जीवित हो। यदि जान-बूझ कर (तपस्या में लगे हुए ब्रह्मवादी मुनि का वध) किया होता तो समस्त रघुवंशियों का कुल नष्ट हो जाता।… तुमने अज्ञानवश जो मेरे बालक की हत्या की है… इस समय पुत्र-वियोग में मुझे जैसा कष्ट हो रहा, ऐसा ही तुम्हें भी होगा। तुम भी पुत्रशोक से ही काल के गाल में जाओगे।’(अयोध्याकांड, सर्ग-63-64)।
इसका एक अन्य अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि मनुष्य का कर्म (Action) ही उसका भविष्य अथवा भाग्य तय करता है।
क्रौंच पक्षी की हत्या देख अपार शोक में पड़ने के बावजूद वाल्मीकि ने आखेट या मृगया को अनेक स्थलों पर रामायण के नायक राम और उनके कुल का धर्म और आमोद-प्रमोद का साधन बताया है और संभवत: यह भी संकेत देने का प्रयास किया है कि हर बार यही मृगया उनकी विपत्ति का कारण बनती है।
राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों द्वारा शिकार करने की पहली घटना वन में गंगा के पार उतरने के समय होती है। ‘वहाँ उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद (शिकार से प्राप्त खुशी) के लिए वराह, ऋष्य, पृषत और महारुरु (सूअर, भैंसा, बारहसिंगा, काली लकीर वाले बारासिंगा) - इन चार महामृगों का शिकार किया’। (2,52,102)। इसके एक सर्ग बाद वाले सर्ग में एक श्लोक है, ‘राम (भरद्वाज के) आश्रम की सीमा में पहुँचकर अपने धनुर्धर वेश के द्वारा वहाँ के पशु-पक्षियों को डराते हुए दो ही घड़ी में मुनि के आश्रम के समीप जा पहुँचे’। (सर्ग-54, श्लोक-9)।
राम-लक्ष्मण के इस आखेटक के रौद्र रूप को देखकर कौन पशु-पक्षी नहीं डरेगा? अयोध्याकांड के ही पचपनवें सर्ग में एक अन्य स्थल पर एक श्लोक मिलता है, ‘इस तरह एक कोस की यात्रा करके दोनों भाई मार्ग में मिले हुए हिंसक पशुओं का वध करते हुए (‘मृगान् हत्वा’) यमुना-तटवर्ती वन में विहरने लगे,’ (श्लोक-32)। चित्रकूट के वन में वाल्मीकि के आश्रम के पास राम, लक्ष्मण और सीता अपनी पर्णकुटी बनाते हैं। उसमें (गृह)प्रवेश की पूजा के लिए कुछ पशुओं को मारकर लाने का आदेश देते हुए राम कहते हैं, ‘सौमित्र! हम उसी मांस से पर्णशाला के अधिष्टाता देवताओं का पूजन करेंगे; क्योंकि दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाले पुरुषों को वास्तुशमन अवश्य करनी चाहिए। लक्ष्मण! तुम मृग मारकर यहाँ ले आओ; क्योंकि शास्त्रोक्त विधि का अनुष्ठान हमारा कर्तव्य है:
ऐणेयं मांसंमाहृत्य शालां यक्ष्मामहे वयम्॥ कर्तव्यं वास्तुशमनं सौमित्रे चिरजीविभि:॥22॥
मृगं हत्वाssनय क्षिप्रं लक्ष्मणेह शुभेक्षण॥ कर्तव्य: शास्त्रदृष्टो हि विधिर्धर्ममनुस्मर॥23॥
लक्ष्मण राम के आदेश का पालन करते हैं। शिकार कर के लाने के बाद राम के कहे चार अन्य श्लोकों (25, 26, 27 व 28) में वास्तुशमन की हवन-पूजा से समृद्धि और काले मृग के खाने से बिगड़े हुए सभी अंगों को ठीक करने जैसे लाभ बताए गए हैं :
कृष्ण मृगं हत्वा….समिधे जातवेदसि’’, ‘तत् तु पक्वं समाज्ञाय निष्टप्तं छिन्नशोणितम्’ (26 व 27) तथा ‘अयं सर्व: समस्तांग: श्रृत: कृष्णमृगोमया। देवता देवसंकाश यजस्व कुशलो ह्यसि॥28॥)।
वाली को मारने के बाद उससे बहस करते समय भी राम पशु के शिकार को क्षत्रियों और विशेषकर राजाओं का धर्म कहते हुए उसे छुपकर धोखे से मारने का औचित्य सिद्ध करना चाहते हैं, ‘वानरश्रेष्ठ! इस कार्य (वाली की हत्या) के लिए मेरे मन में न तो कोई संताप है और न खेद ही। मनुष्य बड़े-बड़े जाल बिछाकर फंदे फैलाकर और नाना प्रकार के कूट उपाय कर के छिपे रहकर मृगों को पकड़ लेते हैं, भले ही वे भयभीत होकर भागते हों या विश्वस्त होकर अत्यंत निकट बैठे हों। मांसाहारी मनुष्य सावधान, असावधान अथवा विमुख होकर भागने वाले पशुओं को भी अत्यंत घायल कर देते हैं, किंतु उनके लिए इस मृगया में दोष नहीं लगता। वानर! धर्मज्ञ राजर्षि भी मृगया (शिकार) के लिए जाते हैं, और विविध जंतुओं का वध करते हैं:
न मे तत्र मनस्तापो न मन्युर्हरिपुंगव:। वागुराभिश्च पाशैश्च कूटैश्च विविधैर्नरा।…..प्रमत्तानप्रमत्तान् वा नरा मांसाशिनो भृशम्। विध्यन्ति विमुखांश्चापि न च दोषोsत्र विद्यते॥(किष्किंधाकांड, सर्ग-18, श्लोक-38-40)।
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बहरहाल, ऋषियों के कहने से उनके यज्ञों की राक्षसों से रक्षा करने की प्रतिज्ञा करने के बाद, राम के तापस वेश में होने के बावजूद उनके अस्त्र-शस्त्र रखने और ‘अकारण प्राणियों के वध करने’ के विरुद्ध वाल्मीकि की सीता तर्क करती हैं। उसके उत्तर में राम अपने प्रतिज्ञा-पालन पर दृढ़ रहते हैं। इस पूरे प्रकरण को अध्याय आठ में विस्तार से दिया जा चुका है। शूर्पणखा का अंगभंग, दशरथ द्वारा मुनिकुमार की हत्या से कमतर पाप नहीं है,
ऐसा कहना अनुचित नहीं लगता। दशरथ के हाथ से हाथी के भ्रम में मनुष्य मारा जाता है, किंतु यहाँ उनके आश्रम में एक स्त्री आती है और प्रणय निवेदन करने लगती है। दोनों भाई पहले उससे विनोद करते हुए उसे एक दूसरे के पास भेजते हैं और जब वह क्रोधित होकर सीता को हानि पहुँचाने का प्रयास करती है, तो उसके नाक और कान यह कहते हुए काट देते हैं कि ‘इन क्रूर अनार्यों के साथ किसी प्रकार का परिहास नहीं करना चाहिए’। पहले प्रणय-याचना करने वाली स्त्री से परिहास और जब वह बुरा माने तो उसका अंगभंग! इसके बाद प्रणय-निवेदन मात्र के अपराध में अयोमुखी के कान, नाक और स्तन काटे जाने की घटना को भी आखेट ही कहा जाएगा। यदि विचार किया जाय तो इन अवांछित घटनाओं को स्नेहपूर्वक समझाकर टाला जा सकता था।
अपनी मलयालम कहानी ‘मदर क्लैन’ में सारा जोजफ एक स्थान पर लिखती हैं, ‘प्रेम में पड़कर कोई स्त्री यदि
एक पुरुष के पास जाकर प्रणय-निवेदन करती है, और यदि वह उसकी कामना को पूरा नहीं करना चाहता, तो
उसे उस स्त्री से यह कहना चाहिए था कि वह उसे एक बहन मानता है।’ (रामायण: रीटेलिंग फ्रॉम केरला)।
बुद्ध का सामना भी इससे मिलती-जुलती घटना से होता है। मागंदिय नामक ब्राह्मण ने बुद्ध की जाति तथा ब्रह्मचर्य व्रत का कोई ख्याल नहीं किया और एक सुवर्ण-वर्णा कन्या का विवाह उनसे करना चाहा। बुद्ध ने इनकार कर दिया। कन्या अथवा उसके पिता की ओर देखे बिना बुद्ध इस प्रकार बोले मानो किसी अन्य को संबोधित कर रहे हों, ‘(मार-कन्याएँ) तृष्णा, और राग को देखकर भी यह मल-मूत्र पूर्ण मैथुन का विचार मन में नही आता’। ब्राह्मण अनुरोध करता रहा, किंतु बुद्ध ने उनकी ओर देखा ही नहीं। अंतत: ब्राह्मण को परिवार सहित घर लौटना पड़ा। (राहुल सांकृत्यायन, बुद्धचर्य्या, पृष्ठ 154-157)। यह अलग बात है कि बाद में उस सुंदरी कन्या का एक राजकुमार से विवाह हुआ; और वह जीवन भर के लिए बुद्ध की शत्रु बन गई और उनसे बदला लेने का (निष्फल) प्रयत्न करती रही। (डीडी कोसंबी, प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता, पृष्ठ-143)।
यदि बुद्ध और वाल्मीकि (समूह) के राम में अंतर है तो इसका आसानी से समझ में आ जाने वाला एक ही कारण है। बुद्ध यथार्थ हैं और राम मिथक। ऐसा मिथक, जिसके माध्यम से वाल्मीकि सिद्ध करना चाहते थे कि अकारण की गई हिंसा हिंसा करने वाले के लिए आत्मघाती है, इसलिए हिंसा त्याज्य है। दुख को कैसे दूर किया जा सकता है, बुद्ध इस प्रश्न का उत्तर खोजने निकले थे, जबकि राम ‘धर्म’ के लिए सकारण और अकारण दूसरों का आखेट करते हैं और प्रतिक्रिया में स्वयं भी शिकार होते चलते हैं। उनका लगभग पूरा जीवन अशांति में बीतता है। वाल्मीकि द्वारा निषाद को दिए गए शाप (‘तुझे नित्य-निरंतर- कभी भी शांति न मिले’) को याद करते हुए आखेट की इन घटनाओं पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि वाल्मीकि ने इन घटनाओं की शृंखला क्या बिना किसी कारण के तैयार की है?
शूर्पणखा के अंगभंग की घटना इस महाकाव्य की कथा का निर्णायक मोड़ इस अर्थ में है; क्योंकि इसकी प्रतिक्रिया में होने वाली शृंखलाबद्ध घटनाएँ इस महाकाव्य के नायक के जीवन में त्रासदी भर देती हैं। अरण्यकांड का सोलहवाँ सर्ग राम, सीता और लक्ष्मण के आनंदमय जीवन का अंतिम सर्ग है। उसमें पहली बार सौंदर्यप्रेमी लक्ष्मण के मुख से हेमंत ऋतु में प्रकृति की सुंदर छटा, अयोध्या का स्मरण करते हुए पहली बार भरत की प्रशंसा, अधिक धूप के कारण हुए सीता के साँवले सौंदर्य, वन में आनंद मनाते पशु-पक्षियों आदि का मनोहारी वर्णन देखने को मिलता है। वाल्मीकि द्वारा सृजित इस आनंददायी सर्ग के तुरत बाद वाले सर्ग में शूर्पणखा के आगमन के साथ ही त्रासदी की शुरुआत होती है। शूर्पणखा का अंगभंग तीसवें सर्ग में होता है और उसके बारह सर्ग बाद (सर्ग-42 में) सीता स्वर्ण-मृग को देखकर राम से उसे जीवित या मृत पकड़ने की इच्छा व्यक्त करती हैं। इन बारह सर्गों में विगत दुर्भाग्यपूर्ण घटना और आने वाले बड़े तूफान से पहले खर, दूषण और त्रिशिरा आदि राक्षसों के साथ युद्ध हो चुका होता है।
विडंवना देखिए कि ऐसा भी समय आता है, जब अहिंसा की पैरवी करने वालीं सीता सुवर्णमय मायामृग को जीवित या मृत पकड़ने के लिए राम से कहती हैं। सोने और चांदी के समान कांति वाले मृग को सीता उस
समय देखती हैं, जब वे फूल चुन रहीं थीं। वे राम और लक्ष्मण को पुकारकर बुलाती हैं। लक्ष्मण उसे देखते ही संदेह व्यक्त करते हैं कि कुछ ही दिनों पहले शूर्पणखा के अंगभंग के बाद खर, दूषण, त्रिशिरा आदि राक्षसों को मारा गया है; जिसके प्रतिशोध में राक्षसों और खासकर अनेक रूप धारण करने वाले मारीच की यह चाल हो सकती है। ‘मैं तो समझता हूँ कि इस मृग के रूप में वह मारीच नाम का राक्षस आया हुआ है। यह अनेक प्रकार की माया जानता है। राघव! इस पृथ्वी पर कहीं भी ऐसा विचित्र रत्नमय मृग नहीं है, अत: यह निस्संदेह माया का है’।
किंतु सीता के मन में लोभ ने घर बना लिया है। वे राम को दिए गए उपदेश को स्वयं भूल चुकी हैं। सीता के मन का चित्रण करते हुए वाल्मीकि कहते हैं कि ‘मारीच के छल से सीता की विचार-शक्ति हर ली गई थी’। वे राम से कहती हैं, ‘आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा सुंदर है। यह हम लोगों के लिए मनबहलाव के लिए रहेगा। यह सुंदर मृग मेरे मन को मोहे लेता है। यदि यह जीते जी पकड़ में आ जाय तो हम जब वापस राज्य प्राप्त कर लेंगे, उस समय यह मृग हमारे अंत:पुर की शोभा बढ़ाएगा। इस मृग का दिव्य रूप भरत, आप, सासुओं के लिए भी विस्मयजनक होगा। यदि यह जीते जी नहीं पकड़ा जा सका तो इसका चमड़ा ही बहुत सुंदर रहेगा। घास-फूस की चटाई पर इस मरे मृग का चमड़ा बिछाकर मैं इस पर आपके साथ बैठना चाहती हूँ। यद्यपि स्वेच्छा से प्रेरित होकर अपने पति को ऐसे काम में लगाना भयंकर स्वेच्छाचार है और साध्वी स्त्रियों के लिए उचित नहीं माना गया है तथापि इस जंतु के शरीर ने मेरे हृदय में विस्मय उत्पन्न कर दिया है।’
यह एक विकट परिस्थिति है। कुछ आलोचकों ने इस प्रसंग में इसे सीता का वैचारिक विचलन बताया है। भक्ति में डूबे पाठक इसे संयोग कहेंगे। किंतु एक सजग पाठक इसे वाल्मीकि द्वारा गढ़ा गया औजार कहेंगे।
खैर, आरंभ में लगता है कि सीता के प्रेम में पड़कर राम भी सतर्कता को भूल गए हैं, किंतु लक्ष्मण के सुझाव को अनसुना कर के राम मृग की सुंदरता का वर्णन करते हुए जो उत्तर देते हैं, वह सीता को दोषमुक्त-सा कर देता है, ‘लक्ष्मण! राजा लोग बड़े-बड़े वनों में मृगया खेलते समय मांस के लिए शिकार खेलने का शौक पूरा करने के लिए भी धनुष हाथ में लेकर मृगों को मारते हैं। मृगया के उद्योग से ही राजा लोग विशाल वन में धन का भी संग्रह करते हैं; क्योंकि वहाँ मणि, रत्न, और सुवर्ण आदि से युक्त नाना प्रकार की धातुएँ उपलब्ध होती हैं। कोश की वृद्धि करने वाला यह वन्य-धन मनुष्यों के लिए अत्यंत उत्कृष्ट होता है। अर्थी मनुष्य जिस अर्थ का संपादन करने के लिए उसके प्रति आकृष्ट हो बिना विचारे ही चल देता है, उस अत्यंत आवश्यक प्रयोजन को ही अर्थसाधन में चतुर एवं अर्थशास्त्र के ज्ञाता विद्वान ‘अर्थ’ कहते हैं। इस रत्नस्वरूप श्रेष्ठ मृग के बहुमूल्य सुनहरे चमड़े पर सुंदरी सीता मेरे साथ बैठेंगी। यह सुंदर मृग और वह जो दिव्य आकाशचारी मृग (मृगशिरानक्षत्र) है, ये दोनों ही दिव्य मृग हैं। जिनमें से एक तारामृग और दूसरा महीमृग है। लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो यदि वैसा ही यह मृग हो, तो यह राक्षस की माया ही हो तो भी मुझे उसका वध करना ही चाहिए। क्योंकि उस क्रूरकर्मा मारीच ने अनेकानेक श्रेष्ठ मुनियोंकी हत्या की है। तुम आश्रम पर रहकर सीता के साथ सावधान रहना और तबतक इनकी रक्षा करना जब तक इसे मारकर शीघ्र लौट नहीं आता।’ (अरण्यकांड, सर्ग 43)।
स्पष्ट है कि सीता से ज्यादा लोभ राजा राम को हुआ है। गौरतलब है कि अपनी पादुका भरत को सौंपने के बाद से वाली-वध के समय भी राम अपने को या तो राजा समझते हैं अथवा राजा भरत का प्रतिनिधि।
कथा में यह परम तनाव का क्षण है। पाठक सोचता है, चलो, रखवाली के लिए लक्ष्मण तो हैं न! कुछ नहीं होगा। लेकिन वाल्मीकि कहाँ मानने वाले हैं? वे राम के स्वर में मारीच की कातर पुकार का सृजन करते हैं और सीता तथा लक्ष्मण के बीच विवाद और कटु वचनों का आदान-प्रदान कराने के बाद लक्ष्मण को दृश्य से हटा लेते हैं, जिसकी भूमिका उन्होंने बहुत पहले से रच रखी है, जिसके बारे में विस्तार से लक्ष्मण वाले अध्याय में लिखा जा चुका है। परिणामत: सीता का हरण और बाकी का दुखमय जीवन।
राम द्वारा निरीह पशु के अकारण आखेट की अंतिम घटना मारीच के मारने के बाद घटित होती है। मरता हुआ मारीच अपने असली रूप में आकर राम के स्वर में ‘हा सीते! हा लक्ष्मण’ कहकर चिल्लाता है तो राम को अनिष्ट की शंका और चिंता सताती है कि इसमें जरूर कोई चाल है। वाल्मीकि के शब्दों में ‘उसके शब्दों को सुनकर सीता की कैसी अवस्था हो जाएगी और महाबाहु लक्ष्मण की भी क्या दशा होगी’, ऐसा सोचकर धर्मात्मा राम के रोंगटे खड़े हो गए। उस समय वहाँ मृगरूपधारी उस राक्षस को मारकर और उसके उस शब्द को सुनकर राम के मन में विषादजनित तीव्र भय समा गया।’ (अरण्यकांड, सर्ग-44,श्लोक-24-25)।
किंतु स्वभाव मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। राम का आखेट-भाव उस आपात काल में भी उनका साथ नहीं छोड़ पाता। चूँकि मारीच मनुष्य निकला और किसी न किसी हिरण का मांस ले जाना है; तो उसके बदले राम एक अन्य हिरण का शिकार करते हैं और उसका मांस लेकर वापस जनस्थान लौटते है : निहत्य पृषतं चान्यं मांसादाय राघव:। त्वरमाणो जनस्थानं ससाराभिमुखं तदा॥(श्लोक- 27)।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बाद में राम को विष्णु का अवतार सिद्ध करने के उद्देश्य से टीकाकार द्वारा किसी स्थान पर मांस को मांस रहने दिया गया है, तो किसी जगह मांस का अर्थ फल का गूदा कर दिया गया है।
बहरहाल, इस दूसरे हिरण को मारने और उसका मांस निकालने के काम में कितना समय गवाँया गया होगा, इसे कोई भी पाठक आसानी से समझ सकता है। यह वाल्मीकि की कला है; कि वे चाहते हैं कि राम इतनी देर करें ताकि रावण काफी दूर निकल जाय और सीता को लेकर लंका पहुँच जाय वर्ना कथा का अंत रावण के अंत के साथ अरण्यकांड में ही हो जाएगा।
वाल्मीकि ने कथा-नायक के चरित्र में आखेट संबंधी इसी विचलन अथवा भूल-गलती के प्रसंगों का सृजन किया है, जिनके परिणामस्वरूप सीता का अपहरण होता है और फलस्वरूप सीता को जीवन भर दुख उठाना पड़ता है, तो राम को भी सुख-चैन नसीब नहीं हो पाता। दूसरी ओर रावण की यही एक भूल- सीता का अपहरण- उसके समूल नाश का कारण बन जाती है। इस दृष्टिकोण से देखा जाय तो रामायण का अंत त्रासदी में होता है।
*
(2)
‘सीता-राम’ अथवा ‘सियाराम’ जैसे पदबंधों के माध्यम से राम और सीता के अटूट और अनंत संबंधों की कल्पना पता नहीं कितने समय पहले से जनमानस में बनी हुई है; किंतु वास्तविकता तो यह है कि राम संबंधी अनेक मिथकों में से यह भी एक मिथक मात्र है। यह संबंध वैसा ही है जैसे आकाश से पृथ्वी क्षितिज में मिलती तो दिखाई देती है, किंतु यथार्थ में वह कभी नहीं मिलती।
राम की छवि रामायण में आरंभ से ही आक्रमक योद्धा के रूप में गढ़ी गई है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण जब ताड़का और सुबाहु का बध करने जा रहे होते हैं तो उनकी छवि का वर्णन इस प्रकार किया गया है: “उन दोनों भाइयों ने पीठ पर तरकस बाँध रखे थे। उनके हाथों में धनुष शोभा पा रहे थे तथा वे दोनों दसों दिशाओं को सुशोभित करते हुए महात्मा विश्वामित्र के पीछे तीन-तीन फन वाले दो सर्पों के समान चल रहे थे (कलापिनौ धनुष्पाणि शोभयानौ दिशो दश। विशामित्रं महात्मनं त्रिशीर्षाविव पन्नगौ॥)।” (बालकांड, सर्ग-23, श्लोक-7)।
अर्थात एक ओर कंधे पर धनुष, तो दूसरी ओर पीठ पर तूणीर और बीच में मस्तक- इन्हीं तीनों की तीन फन से उपमा दी गई है। एक और चित्र देखा जा सकता है। ‘राम (भरद्वाज के) आश्रम की सीमा में पहुँचकर अपने धनुर्धर वेश के द्वारा वहाँ के पशु-पक्षियों को डराते हुए (त्रासयन मृगपक्षिण:) दो ही घड़ी में मुनि के आश्रम के समीप जा पहुँचे’। (सर्ग-54, श्लोक-9)।
यही वह छवि है जिसे उस समय के शत्रुओं के सामने रखने का प्रयास किया गया होगा और वही रूप आज धर्म और राज्य को एक साथ लेकर चलने वाली राजनीतिक पार्टियों ने भी ग्रहण किया है। वाल्मीकि द्वारा पूरे रामायण में जगह-जगह राम की व्याघ्र और सिंह से उपमा दी गई है।
दूसरी ओर, वाल्मीकि ने सीता की जिस छवि की रचना की है, उसे बताने के लिए सीता-हनुमान संवाद में से इस अंश मात्र को उद्धृत करना पर्याप्त माना जा सकता है:
“श्रेष्ठ पुरुष दूसरे की बुराई करने वाले पापियों के पापकर्म को नहीं अपनाते हैं- बदले में उनके साथ भी स्वयं पापपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहते हैं, अत: अपनी प्रतिज्ञा एवं सदाचार की रक्षा करनी चाहिए। सदाचार ही उनका अभूषण है। श्रेष्ठ पुरुष को चाहिए की कोई पापी हो या पुण्यात्मा अथवा वे वध के योग्य अपराध करने वाले ही क्यों न हों, उन सब पर दया करें, क्योंकि ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जिससे कभी न कभी अपराध नहीं हुआ हो। (पापानां वा शुभानां वा वधार्हाणामथापि वा। कार्यं कारुण्यमार्येण न कश्चिन्नापराध्यति॥)।” (युद्धकांड, सर्ग-113, श्लोक-44-45)।
वनगमन के समय सीता को अयोध्या में रहकर भरत को ‘विशेष यत्नपूर्वक’ प्रसन्न रखने के राम के सुझाव की निंदा करते हुए सीता द्वारा राम को स्त्री की कमाई खाने वाले नट की संज्ञा देना (शैलूष इव मां राम परेभ्यो दातुमिच्छसि), अरण्यकांड में ‘अकारण’ हिंसा के विरुद्ध सीता का राम के साथ वाद-विवाद करना, अग्नि-परीक्षा के समय देह को ही सर्वोपरि मानने वाले राम के आरोपों का उत्तर देते हुए सीता का हृदय और आत्मा में बसे प्रेम को देह से परे बताना (मदधीनं तु यत् तन्मे हृदयं त्वयि वर्तते। पराधीनेषु गात्रेषु किं करिष्याम्यनीश्वरी॥); ये कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिनसे दोनों के सोच और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई देता है। और आखिर में अश्वमेध यज्ञ के समय जनसमुदाय के समक्ष राम जिस प्रकार सीता के सामने शुद्धता की शपथ लेने के बाद ही उन्हें अपनाने की शर्त रखते हैं; और उत्तर में राम की ओर देखे बिना वे खामोशी के साथ जिस प्रकार भूमि-प्रवेश कर जाती हैं, (जिसे प्रेम के समाप्त होने का संकेत माना जा सकता है), वह उन दोनों के वैचारिक अंतर को स्पष्ट कर देता है।
सीता और राम अपने सोच और आचरण में ही नहीं, जन्म और मृत्यु में भी एक दूसरे के प्रतिकूल हैं। सीता का जन्म राम की तरह किसी माँ के गर्भ से नहीं, धरती से होता है और वे अंत में धरती में समा जाती हैं। वह न तो फिर से जन्म लेती हैं और न (राम की भांति) मरती हैं। राम आकाश में स्थित विष्णुलोक से अवतार लेकर आते हैं और वापस आकाश में चले जाते हैं। दोनों के इस संसार में आने और लौटने के स्थान विपरीत दिशा में हैं। विछड़ने के बाद राम के साथ वे कभी नहीं मिलतीं। इसलिए इस पुस्तक का शीर्षक ‘सीता बनाम राम’।
(नारायण सिंह
जन्म- 30 जनवरी, 1952; पुटकी कोलियरी, धनबाद, झारखंड।
शिक्षा- हिंदी में एम. ए., अनुवाद में डिप्लोमा।
प्रकाशित रचनाएँ:
देश की विभिन्न प़त्र-पत्रिकाओं में लगभग कहानियाँ, निबंध/समीक्षाएँ प्रकाशित।
एक उपन्यास, एक उपन्यासिका, चार कहानी-संग्रह, एक निबंध-संग्रह, एक भोजपुरी व्यंग्य-संग्रह, ‘सीता बना राम’ (वाल्मीकि रामायण पर आधारित रामकथा का वैकल्पिक पाठ)।
गांधीवादी श्रमिक नेता कांति मेहता की आत्मकथा ‘माइ लाइफ माइ स्टोरी’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरा जीवन मेरी कहानी’ गांधी लेबर फाउंडेशन, पुरी।
‘कथा’ संस्था, दिल्ली द्वारा चयनित, ‘हंस’ के अर्द्धशती विषेशांक अक्टूबर, 1997 में प्रकाशित कहानी ‘कुलघाती’ का अंगरेजी अनुवाद कथा-संकलन ‘ट्रांस्लेटिंग कास्ट’ में संकलित। मेलः narayansinghdhanbad@gmail.com)