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सुंदर और अभिशप्त

हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं का एक पैटर्न है, जिससे स्थानीय जनसंख्या, निर्माण और विनाश के चक्र में फंस जाती है।

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प्रकृति का प्रकोप: उत्तराखंड में नदी में बाढ़ और टूटी सड़कें
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नालचंद इस साल तैयार गोभी की फसल नहीं काट रहे हैं। वह बताते हैं, "मेरी आलू और मटर की फसल पूरी तरह से नष्ट हो गई। गोभी (कॉलीफ्लावर) बच गई, लेकिन यह सब फेंक दिया जाएगा। यह नुकसान लगभग 80,000 रुपये का है।" कुनालचंद शोजा के निवासी हैं, जो कुल्लू घाटी के पास का एक गाँव है। हाल की बाढ़ में गाँव के दोनों ओर की सड़कें बह गईं, जिससे गाँव स्थानीय मंडी (थोक बाजार) से कट गया। इसके बावजूद भी वह भाग्यशाली थे, क्योंकि उनकी ज़मीन को कोई नुकसान नहीं हुआ। पांकी सूद, एक और कुल्लू निवासी, इतने भाग्यशाली नहीं थे। उनकी ब्यास नदी के करीब एक ज़मीन है। बाढ़ के दौरान, ब्यास ने अपना मार्ग बदल दिया, और अब ज़मीन नदी के पथ में पड़ती है। 

अमूमन, अधिकांश नेता अपने हाथ खड़े कर देते हैं और इन आपदाओं का दोषी जलवायु परिवर्तन को बता देते हैं। वे गलत नहीं हैं; जलवायु निश्चित रूप से बदल रही है। कुल्लू में एक 84 वर्षीय पुरुष का दावा है कि उसने अपने जीवन में ऐसी संघनित वर्षा और ओला नहीं देखी है। 

"इस साल मई में असामयिक ओलावृष्टि ने क्षेत्र में सबसे अधिक क्षति सेब की फसल को पहुंचाई। "यह सेबों का शीर्ष मौसम है और यहाँ कोई सेब नहीं है," शंतानु कुलेश कहते हैं, जो शोजा में एक सेब के बाग में एक छात्रावास चलाते हैं। एल नीन्यो परिघटना, और साथ ही, बदलते हुए मौसम के पैटर्न ने मैदानी इलाकों की मानसून वर्षा को पहाड़ों में पहुँचा दिया है। आईएमडी (IMD) के आंकड़ों के अनुसार, हिमाचल प्रदेश के बारह जिलों में से आठ में इस साल जून से अभी तक भारी बारिश हुई है। तीन जिलों में 'अत्यधिक' बारिश  हुई। इस अकस्मात और प्रचुर बारिश के ठीक विपरीत वहीँ ट्रांस-हिमालय के उच्च क्षेत्रों में जांस्कार नदी के पास कुमिक गाँव लोगों को पानी की कमी के कारण स्थानांतरित करना पड़ा, क्योंकि बर्फ पिघलने के पैटर्न बदल गए। लद्दाख में तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं। हाल के अनुसंधान में देखा गया है कि जांस्कार में ड्रांग ड्रंग हिमनद चार दशक पहले की तुलना में तीन गुना तेजी से पिघल रहा है। इससे भविष्य में एक हिमनदीय झील से उत्पन्न हुई बाढ़ का जोखिम बढ़ता है, और ये विनाशकारी हो सकता है। 

"जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जैसी आपदायें हो रही हैं उनको कई गुणा बढ़ा सकता है," जोयदीप गुप्ता (हिमालय में जलसंचार प्रबंधन पर केंद्रित एक ऑनलाइन प्लेटफार्म, तीसरा ध्रुव, के संपादक) कहते हैं। उनका कहना है, "लेकिन इसे बेकार तरीके से योजनाबद्ध विकास प्रारूप को छुपाने के एक बहाना के रूप में भी इस्तेमाल किया जा रहा है।अमीर देशों पर उत्सर्जन का दोष मढ़ना आसान है। यह इस तथ्य को छुपाता है कि सड़कें और इमारतें दिशा-निदेशों पर बिना कोई विचार किये बनाई गई हैं।" वह आगे कहते हैं, "डैम और पुलों के लिए भी वैसा ही है।" 

हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं का एक पैटर्न है। उत्तराखंड को लें: पिछले तीन दशकों में हमने 1991 का उत्तरकाशी भूकंप, 1998 का माल्पा भूस्खलन, 1999 का चमोली भूकंप, और 2021 की चमोली ग्लेशियर फ्लड देखा है। इन सभी में हुई कुल मौत का आंकड़ा 2013 के केदारनाथ की बाढ़ में मारे गए 5,700 लोगों के आंकड़े के सामने बौना दिखता है। 

यह स्थिति स्थानीय हिमालयी जनसंख्या को निर्माण और विनाश के एक चक्र में फंसा देती है। एक तरफ वो 'विकास' के रूप में प्रदर्शित, बड़े पैमाने पर हो रहे विकास परियोजनाओं को देख रहे हैं, जबकि उसी समय, वो जलवायु-सबंधी आपदाओं के ठीक सामने खड़े हैं। हाल ही में निर्मित चार-लेन मंडी-मनाली राजमार्ग को इस अगस्त में उफान में आए ब्यास ने क्षतिग्रस्त कर दिया था, इसके उद्धघाटन से कुछ दिन पहले ही। बाढ़ के प्रकोप के बाद हिमाचल प्रदेश की हालात का जायज़ा लेने गये, नितिन गडकरी, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री (MoRTH), ने सुझाव दिया कि "नदी के दोनों ओर ऐसी मजबूत दीवार का निर्माण किया जाये कि पानी कहीं भी न जाये।" जबकि इसके विरोधाभास में, हिमाचल प्रदेश सरकार की 2014 की सड़क नीति कहती है कि सड़क बनाते समय, "प्राकृतिक जल-निकासी प्रणाली में न्यूनतम व्यवधान होना चाहिए।" 

ऐसा लगता है कि बाढ़ का क्रोध यह दर्शाता है कि प्रकृति के साथ हमारा संबंध कितना क्षतिग्रस्त हो चुका है। ऐसे महसूस होता है जैसे प्रकृति हमसे चीख कर कह रही हो, "मेरे साथ समन्वय में रहना सीखो।" 

लेकिन हम सुन नहीं रहे हैं। 

2013 के केदारनाथ आपदा के बाद, चार धाम ऑल-वेदर सड़क परियोजना में रवि चोपड़ा को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उच्च-स्तरीय समिति (HPC) का अध्यक्ष बनाया गया था। परियोजना को लेकर उनकी पर्यावरण-संबंधी अंदेशों के मद्देनजर की गई सिफारिशों को नकार दिया गया, और सैन्य प्राथमिकताओं का हवाला देकर चार धाम सड़क को चौड़ा करने की योजनाएं आगे बढ़ाई जा रही हैं। तंग आकर, रवि चोपड़ा ने अपने कार्यभार से इस्तीफा दे दिया। अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा, "... HPC द्वारा पूर्व में दिये गए दिशा-निर्देशों और सिफारिशों को या तो MoRTH द्वारा नकार दिया गया या उस पर अति-विलंब से जवाब दिया गया।" 

जोयदीप गुप्ता, जो पर्यावरण संकट की प्राथमिकता के ऊपर सैन्य प्राथमिकताओं का पक्ष लिये जाने से थक गये हैं, कहते हैं, "आप क्या बचाने की कोशिश कर रहे हैं? वो, जिसे आप नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं?" 

हिमालयी इकोसिस्टम से सम्बंधित कुछ विशिष्ट विनियमन बने हुये हैं। उदाहरण स्वरूप, शहरी और ग्रामीण योजना के लिए बने रेगुलेशंस। हिमाचल प्रदेश सरकार कहती है कि पहाड़ी क्षेत्रों में, "इमारत की कुल ऊँचाई मैदानी इलाकों में 30 मीटर से अधिक और पहाड़ी इलाकों में ढ़लान वाली छत को मिलकर 25 मीटर से नहीं होनी चाहिए।" 25 मीटर का मतलब है कि पहाड़ी क्षेत्रों में 7-8 मंजिला इमारतें बनाने की अनुमति है। हिमालय के बारे में हमारी जानकारी को देखते हुए क्या यह रेगुलेशन उपयुक्त है? यह एक साधारण व्यक्ति को भी सुन कर गलत ही लगेगा। वही विनियमन यह भी स्पष्ट करते हैं कि निर्माण की न्यूनतम दूरी नदी के किनारे से 25 मीटर हो। हालांकि, शहर और ग्राम योजना विभाग के प्रमुख ने स्वीकार किया कि खनन गतिविधियों के कारण नदी अपना मार्ग बदलती रहती है, जिस वजह से इस प्रकार के नियम को लागू करना जटिल है। 

क्या इन संदिग्ध विनियमन का पालन भी किया जा रहा है? मोहन (नाम बदल दिया गया), जो शिमला के एक निवासी हैं, कहते हैं, "यह सामान्यतया ही देखने में आता है कि जिन इमारतों को दो मंजिला बनाने की अनुमति है, वे सात मंजिला बन रहे हैं।" जोयदीप गुप्ता कहते हैं, "ये सिर्फ निजी इमारतों के निर्माण का मामला नहीं हैं, सरकारी इमारतें भी नदी के बेसिन में बनाई जाती हैं।" 

समस्या सिर्फ अवैध निर्माण नहीं है, बल्कि बिना किसी प्लानिंग के किया गया निर्माण भी है। यह भूगोलिक सत्य है कि हिमालय टुकड़ों में बटा हुआ और नाजुक हैं। हम यूरोपीय निर्माण के मॉडल की तरफ देखते हैं, लेकिन हिमालय आल्प्स नहीं है। ये भूकंप और अपरदन की संभावनाओं से भरा है। जब भी भारी वर्षा की अवधि होती है, तो हमें उसी अनुसार निर्माण करने और योजना बनाने की आवश्यकता होती है। इन सभी जलवायु- और मानव-निर्मित परिवर्तनों के कारण क्षेत्र में वन्यजीवन में व्यवहार-परिवर्तन हो रहे हैं। कीर्ति चवण, एक संरक्षण जीवविज्ञानी कहते हैं, "बदलते हुए जलवायु ने भालू के प्राकृतिक आहार को घटा दिया है। वे मानव बस्तियों में खाने की तलाश करने को मजबूर हो रहे हैं, जिससे वन्यजीवन से संघर्ष का जोखिम बढ़ रहा है।" 

विकास क्या है, इस पर सोचने की अत्यावश्यक जरूरत है। धार्मिक पर्यटन और पहाड़ी क्षेत्रों में बढ़ती हुई सैन्य उपस्थिति चौड़ी सड़कों और आधुनिक इमारतों के लिए मार्ग प्रशस्त कर रही है। हालांकि, क्या वास्तव में स्थानीय निवासी यही चाहते हैं, और पर्यावरण को इसी की जरुरत है? स्थानीय जनसंख्या की आवाज को सुने जाने के एक विरले घटना में, जांस्कार में बकार्ट्से गाँव लोगों ने सरकार द्वारा एक कंक्रीट पुल का निर्माण करवाने से इंकार कर दिया, क्योंकि इस से आस-पास का पर्यावरण क्षतिग्रस्त हो जाता। 

हिमालय में जन-केंद्रित और वैज्ञानिक रूप से समर्थित विकास की अब और भी अधिक जरूरत है। अरुणा चंद्रशेखर, एक यूके आधारित जलवायु नीति-केंद्रित प्रकाशन कार्बन ब्रीफ की पत्रकार, कहती हैं, "पहाड़ी समुदाय पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का सामना कर रहे हैं। उन्हें हिमालय क्षेत्र में आगे से किसी भी विकास से पहले जलवायु प्रभावों को ध्यान में रखे जाने और उसी के अनुसार योजना बनाने के राज्य एजेंसियों के तत्पर समर्थन की जरूरत है।  

2022 में, पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन नियम को कमजोर किया गया था क्योंकि वे सीमा क्षेत्रों में सड़क परियोजनाओं के लिए पर्यावरण सम्बन्धी मंजूरियों की जरूरत को दूर करने के लिए, नियम से लोगों की भागीदारी को हटा देना चाहते थे, नियंत्रण रेखा (LOC) के 100 किलोमीटर के भीतर। इस साल लाये गए एक और हालिया वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक में 'वन' की परिभाषा को कमजोर किया गया, जिससे 'वन' मानी जाने वाली भूमि का आकार घटाया जा सके। यह विधेयक सीमा क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को वन विभाग की स्वीकृति की जरुरत से मुक्त भी करता है। ये नीति परिवर्तन एक पहाड़ी ढ़लान पर बिना पीछे की ओर देखे और बिना ब्रेक के तेजी से भागते जाने के समान है। वक़्त आ गया है कि हम इस अनवरत खुदाई को रोकें और विज्ञान की और उन स्थानीयों की आवाजों को सुनें जो इन पहाड़ों में पीढ़ियों से रह रहे हैं। 

1962 के भारत-चीन युद्ध में 3,250 भारतीय सैनिक मारे गए और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में 3,843। 2023 के जलवायु कारण हुये मृत्यु के आंकड़े अभी अस्पष्ट हैं, लेकिन 2013 के केदारनाथ की बाढ़ में 5,700 की मौत का आंकड़ा इस परिस्थिति को एक युद्ध से कम नहीं बनाता – जिसे भविष्य में होने सकने वाली आपदाओं को बढ़ावा देने के बजाय रोकथाम के लिए लड़ा जाना चाहिए। हमें सुनिश्चित करना है कि चीन या पाकिस्तान के बजाय, हम अपने खुद के सबसे बड़े दुश्मन ना बन बैठें। 

(आदित्य भास्कर द्वारा अनुवादित)